– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
संघ की निर्मिति का प्रयोजन भारत है, संघ के चलने का प्रयोजन भारत है और संघ की सार्थकता भारत को विश्वगुरु बनाने में है। यह विचार दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संवाद कार्यक्रम ‘100 वर्ष की संघ यात्रा: नए क्षितिज’ में संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन राव भागवत द्वारा व्यक्त किए गए। वास्तव में उन्होंने जो बोला, उससे यही स्थापित हुआ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार भारत का विचार है और भारत का दर्शन ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार है। उद्देश्य संघ का एक ही है भारत का परमवैभव। यह स्थापना केवल एक कथन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जीवन का वह संकल्प है जिसे आरएसएस अपने कार्यक्रमों, अनुशासन और कार्यपद्धति के माध्यम से जीवन्त करता है।
वस्तुत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का मूल उद्देश्य केवल संगठन खड़ा करना नहीं था, बल्कि भारत की हिन्दू सनातन धर्म से ओतप्रोत ऊर्जा का पुनः स्मरण एवं जागरण है। कहना होगा कि डॉ. भागवत जी अनेक अवसरों पर यह स्पष्ट कर चुके हैं कि संघ का विचार कोई पृथक या आयातित विचार नहीं है। “संघ का विचार भारत का मूल विचार है और भारत का दर्शन ही संघ का दर्शन है।” यह वाक्य संघ की आत्मा का घोष है। भारत कोई भौगोलिक रेखाओं में बँधा हुआ राष्ट्र मात्र नहीं, बल्कि एक सनातन चेतना है। यह चेतना ही संघ का मूल है, और यही चेतना भारत को विश्वगुरु बनाने की क्षमता रखती है।
भारत : भू-भाग नहीं, जीवंत संस्कृति
भारत की विशेषता उसकी भौगोलिक विविधता नहीं, बल्कि उसकी सांस्कृतिक एकात्मता है। सहस्रों वर्षों से भारत ने यह सिद्ध किया है कि विविधता में भी एकता संभव है। यहाँ अनेक भाषाएँ, अनेक पंथ, अनेक परंपराएँ हैं, किंतु सबको जोड़ने वाली डोर यदि कोई है तो वह भारतीय संस्कृति का दर्शन है। यही कारण है कि डॉ. भागवत कहते हैं, “भारत माता केवल भूमि नहीं, बल्कि वह चेतना है जो हम सबमें जीवित है। संघ का कार्य इस चेतना को जागृत करना है।”
संघ के अनुसार राष्ट्र कोई संधि या अनुबंध पर टिका हुआ ढाँचा नहीं है। वह एक जीवित प्राण तत्व है जिसकी आत्मा संस्कृति है। यही संस्कृति धर्म का आधार है, और धर्म से ही जीवन की दिशा तय होती है। भारत का विचार इसलिए अनोखा है क्योंकि यहाँ राष्ट्रीय चेतना सत्ता-केन्द्रित न होकर संस्कृति-केन्द्रित है।
संघ का उद्देश्य : व्यक्ति से राष्ट्र का निर्माण
डॉ. भागवत अब तक अनेक अवसरों पर यह भी कह चुके हैं कि रा. स्व. संघ का उद्देश्य राजनीति नहीं, बल्कि व्यक्ति निर्माण है। शाखा संघ की प्रयोगशाला है। यहाँ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक संस्कारों के द्वारा व्यक्ति को अपने राष्ट्र के लिए समर्पित बनाने की शिक्षा दी जाती है। खेल और बौद्धिक विमर्श से प्रत्येक स्वयंसेवक अपने राष्ट्र को ठीक वैसे ही जान लेता है जैसे कि वह स्वयं को जानता है ।
उनका कहना है – “जब व्यक्ति राष्ट्र के आदर्शों को जीता है, तब समाज स्वतः संगठित होता है और जब समाज संगठित होता है, तभी राष्ट्र शक्तिशाली होता है।” संघ की शाखा में दिखाई देने वाले खेल, गीत, अनुशासन ये सब केवल प्रतीक नहीं हैं। ये व्यक्ति को समर्पण, सहयोग और संयम की साधना कराते हैं।
भारत का परमवैभव : संघ का ध्येय
रास्वसंघ के लिए भारत का परमवैभव केवल भौतिक उन्नति नहीं है। यह वह अवस्था है जब भारत अपनी मौलिकता के बल पर विश्व का मार्गदर्शक बने। पश्चिम ने भौतिक प्रगति की है, परंतु दिशा खो दी है। भारत के पास वह दिशा है जो “वसुधैव कुटुम्बकम्” के आदर्श पर आधारित है। वह भारत ही है जिसके पास सदियों से संस्कारयुक्त परिवार व्यवस्था रहती आई है। डॉ. भागवत कहते हैं, “दुनिया को तकनीक चाहिए, समृद्धि चाहिए, पर सबसे ज़्यादा चाहिए मानवता। भारत के पास वह दृष्टि है जो सबको एक परिवार मानती है। यही दृष्टि भारत को विश्वगुरु बनाती है।” संघ का ध्येय इसी विश्वगुरुता की प्रतिष्ठा है। इसलिए संघ का कार्य केवल शाखा तक सीमित नहीं है। वह समाज के प्रत्येक क्षेत्र में सेवा के माध्यम से भारत की आत्मा को पुष्ट करता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामोदय, महिला सशक्तिकरण, प्राकृतिक आपदा में राहत हर क्षेत्र में संघ के स्वयंसेवक निस्वार्थ भाव से कार्य करते हुए देखे जा सकते हैं।
डॉ. भागवत ने कहा है, “सेवा संघ का स्वभाव है। समाज का कोई भी वर्ग उपेक्षित न रहे, यही संघ की साधना है। जब समाज का अंतिम व्यक्ति आत्मविश्वास से खड़ा होगा, तभी भारत खड़ा होगा।” यह दृष्टिकोण भारत के उस दर्शन से निकला है जिसमें प्रत्येक जीव में ईश्वर का अंश देखा गया है।
जो भी भारत की संस्कृति को मानता है, वह संघ का अपना है
संघ को लेकर प्रायः संकीर्णता या बहिष्कार का आरोप लगाया जाता है। परंतु डॉ. भागवत ने बार-बार स्पष्ट किया है कि संघ किसी जाति, धर्म या भाषा का संगठन नहीं है। यह सम्पूर्ण भारत का संगठन है। उनका कहना सदैव से ही यही रहा है कि “संघ जोड़ने का काम करता है, तोड़ने का नहीं। भारत सबका है, और संघ भारत के लिए है। जो भी भारत की संस्कृति को मानता है, वह संघ का अपना है।” संघ की दृष्टि में भारतीयता कोई वेशभूषा नहीं, बल्कि जीवन की शैली है। यह भारतीयता ईश्वर से लेकर प्रकृति तक, परिवार से लेकर समाज तक सबको जोड़ती है। इसी दृष्टि को लेकर संघ ने ‘एकात्म मानवदर्शन’ को समाज में स्थापित करने का प्रयास किया है।
अब तक की संघ यात्रा में करोड़ों लोगों के जीवन में उजास लाने का कारण बने हैं स्वयंसेवक
संघ की यात्रा 1925 में डॉ. हेडगेवार से आरंभ हुई। उस समय भारत दासता की बेड़ियों में जकड़ा था। डॉ. हेडगेवार ने समझा कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक संघर्ष से स्थायी नहीं होगी, जब तक समाज का आत्मबल नहीं जागेगा। उन्होंने संगठन के रूप में संघ को जन्म दिया। आज लगभग एक शताब्दी संघ को कार्य करते हुए पूरी हो रही है। इस कालखण्ड में अनेक स्वयंसेवकों का बलिदान देश हित में हुआ है। स्वयंसेवक हजारो या लाखो नहीं अब तक के समय में करोड़ों लोगों के जीवन में उजास लाने का कारण बने हैं। यही कारण है कि आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व के सबसे बड़े सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों में है। करोड़ों स्वयंसेवक इस ध्येय को लेकर कार्यरत हैं कि भारत अपनी सनातन स्व चेतना से विश्व मंच पर खड़ा हो।
संघ का राष्ट्रचेतन विचार एवं उसकी अवधारणा पश्चिमी से भिन्न है
डॉ. भागवत ने शताब्दी वर्ष की ओर बढ़ते संघ के लिए कहा है कि ‘हमारा लक्ष्य बड़ा है। हमें विश्व को मार्गदर्शन देना है। भारत सम्पूर्ण मानवता को दिशा देने के लिए तैयार हो रहा है। परंतु यह तभी संभव होगा जब प्रत्येक भारतवासी अपने स्वरूप को पहचान ले।’ इसलिए यह समझना आवश्यक है कि संघ का राष्ट्रचेतन विचार एवं उसकी अवधारणा पश्चिमी राष्ट्रों की अवधारणा से भिन्न है। पश्चिम में राष्ट्रवाद है, जो सीमाओं, सत्ता और आर्थिक हितों पर टिका है। भारत का विचार राष्ट्रवाद से ऊपर राष्ट्रीय चेतना में निहित है, जिसमें संस्कृति और अध्यात्म दोनों का समन्वय है, और यही समन्वय ही विश्व को दिशा दिखाने का सामर्थ्य रखता है।
वेदों में कई मंत्र हैं, जो राष्ट्र के होने के वास्तविक अर्थ को उद्घाटित करते हैं। इसमें राष्ट्र वही जीवंत है जो मनुष्य को उच्चतर जीवन की ओर ले जाए। संघ का विचार इन्हीं वेद विचारों के लिए समर्पित है। यही कारण है कि संघ के लिए राष्ट्र केवल राजनीतिक इकाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक परिवार है।
आज भारत एक वैश्विक शक्ति बनने की राह पर है। तकनीकी प्रगति, आर्थिक सशक्तिकरण और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत का महत्व बढ़ रहा है। लेकिन यदि यह सब केवल भौतिकता पर आधारित रहा तो यह अधूरा होगा। संघ का आग्रह है कि भारत के लोग अपनी प्रगति को अपने मूल दर्शन से जोड़े। तभी भारत विश्वगुरु बन पाएगा। अत: डॉ. भागवत ने स्पष्ट कहा है, कि “भारत का वैभव तभी सच्चा होगा जब वह अपनी संस्कृति पर आधारित होगा। संघ का उद्देश्य सत्ता नहीं, सेवा है। सत्ता तो साधन है, उद्देश्य नहीं। उद्देश्य केवल एक है, वह है- भारत का परमवैभव।”
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी
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