एक राजा के पास एक व्यक्ति एक हीरा लाया और बोला- महाराज! मैं यह हीरा बेचना चाहता हूँ।
राजा ने मूल्य पूछा तो वह बोला- श्रीमान! आप जो दे देंगे। बस अन्याय न हो। हीरे का जितना मूल्य उचित हो उतना दे दें।
राजा ने मन्त्रियों और जौहरियों से परामर्श किया, पर हीरे के सही मूल्य का निर्णय न हो सका। किसी ने कहा पाँच हजार तो किसी ने कहा पचास हजार, किसी ने एक लाख कहा तो किसी ने पाँच लाख।
अंत में हार कर राजा ने पूरे राज्य में घोषणा करवाई कि हमारे पास एक हीरा आया है, जो कोई भी इस हीरे का उचित मूल्य बताएगा उसे हम यथायोग्य पुरस्कार देंगे।
एक संतसेवी लड़के ने यह बात सुनी। वह एक जौहरी का ही पुत्र था, और अपने गुरू जी के पास रहता हुआ उनके उपदेश सुनता था। वह राजमहल पहुंचा। उसने हीरा तीन महीने तक परखा और अन्ततः हीरे के गुणों का वर्णन करता हुआ बोला- महाराज! इसका मूल्य सवा करोड़ रुपये है।
राजा ने हीरा लाने वाले को सवा करोड़ रुपये दे दिए और हीरा ले लिया।
पर अब यह प्रश्न यह उत्पन्न हुआ कि इस लड़के को क्या पुरस्कार दिया जाए? किसी ने कहा पाँच हजार तो किसी ने कहा दस हजार। तीसरे ने कहा कि इतना कुशल लड़का है, इसे बीस हजार रुपये तो देने ही चाहिए।
निर्णय नहीं हुआ तो राजा ने फिर घोषणा कराई कि निर्णय हो कि इस लड़के को क्या पुरस्कार दिया जाए?
इस घोषणा को उस लड़के के गुरू जी ने भी सुना। वे राजमहल आए, बोले- महाराज! मैं बताता हूँ कि इसे क्या पुरस्कार दिया जाए। इसे कड़कती धूप में खड़ा कर दिया जाए, और जब यह पसीना-पसीना हो जाए तब इसे दस कौड़े लगाए जाएँ, यही इसका पुरस्कार है।
राजा ने आश्चर्य से कहा- यह कैसा पुरस्कार है?
गुरू जी बोले- यही उचित पुरस्कार है महाराज। भगवान ने इसे इतनी अच्छी बुद्धि दी है। इसने उसे आत्मा को, असली हीरे को पहचानने में नहीं, पत्थर को पहचानने में लगा दिया। ऐसे मनुष्य को यही फल मिलना चाहिए।
मैं आपसे पूछता हूं, आप बताएँ कि आप अपनी बुद्धि कहाँ लगा रहे हैं? आपको क्या पुरस्कार मिलना चाहिए?
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