20 जून 2025 को जब ‘सितारे ज़मीन पर’ सिनेमाघरों में आएगी, तो यह आमिर खान की महज एक और रिलीज नहीं होगी। यह एक मुकम्मल परीक्षा होगी। बॉलीवुड की ईमानदारी की। इसके लिए दर्शकों की तैयारी की। और इस बात की भी कि हमारा देश न्यूरोडाइवर्जेंट जीवन को स्क्रीन पर दिखाने के मामले में दया, मान-सम्मान और प्रचार से आगे बढ़ने के लिए आखिरकार कितना तैयार है।
2007 की “आध्यात्मिक सीक्वल” के रूप में प्रचारित यह फिल्म (तारे ज़मीन पर) एक महत्वपूर्ण बदलाव का परिचायक भी है और संकेत भी- जिसकी मुख्य भूमिकाओं में दस न्यूरोडाइवर्जेंट इंसानों को लिया गया है। ये ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर, डाउन सिंड्रोम और फ्रैजाइल एक्स सिंड्रोम सरीखे अनुभव वाले लोग हैं, टिक्स और लक्षणों की नकल के सहारे पर्दे पर धमाल मचाने वाले कोई प्रशिक्षित अभिनेता नहीं। पार्श्व में छिपे रहने वाला कोई कैरेक्टर नहीं। असल जीवन जीने वाले बिलकुल असल लोग जो पूरी तरह से जीवंत भूमिकाओं में सामने आते हैं।
यह सब अपने आप में गौर करने लायक है। लेकिन अभी वह अवसर भी नहीं कि इसका जश्न मनाया जाय। क्योंकि इतिहास गवाह है कि अतीत से कुछ सबक अगर स्मृति में हैं तो वह यह कि भारतीय सिनेमा का विकलांगता के प्रति एक जटिल, और अक्सर लापरवाह सा रिश्ता रहा है, खासतौर से न्यूरोडाइवर्जेंस के मामले में।
न्यूरोडाइवर्सिटी क्या है - और इस पर बात करना क्यों जरूरी है?सीधे-सीधे बात करते हैं। न्यूरोडायवर्सिटी शब्द का इस्तेमाल पहली बार 1990 के दशक के अंत में ऑस्ट्रेलियाई समाजशास्त्री जूडी सिंगरन ने किया था। जो बताता है कि ऑटिज़्म, एडीएचडी, डिस्लेक्सिया, डिस्प्रैक्सिया आदि जैसे तंत्रिका संबंधी अंतर मानव मस्तिष्क की प्राकृतिक विविधताएं हैं, न कि ऐसी विकृतियां जिन्हें ठीक किया जा सके।
भारत में, जहां ऐसी स्थितियों को लेकर जागरूकता अब भी खासी कम है और इलाज मिलने में अक्सर देर होती है, ऐसे तंत्र (ढांचे) की तत्काल जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 100 बच्चों में से 1 ऑटिस्टिक है, और डाउन सिंड्रोम हर 1,000 जीवित जन्मों में से 1 को प्रभावित करता है। फ्रैजाइल एक्स सिंड्रोम की चर्चा हालांकि कम ही होती है, जो बौद्धिक विकलांगता का सबसे आम वंशानुगत कारण है, और जिसे प्रायः अन्य कारणों से गलत समझ लिया जाता है।
फिर भी, भारत में आम तौर पर ऐसे मामलों में अजब सी खमोशी साध ली जाती है। बच्चों को स्कूल के बजाय घर पर ही रखा जाता है। नौकरी के आवेदन चुपचाप खारिज कर दिए जाते हैं। ऐसे तमाम परिवार मिलेंगे जो संभावना तलाशने के बजाय छिपे रहना पसंद करते हैं।
इतिहास जिसे हम भूल जाना (या फिर से लिखना) चाहेंगेभारतीय फिल्में विकलांगता के विचार को लंबे समय से दिखाती तो रही हैं, लेकिन ज्यादातर अपनी शर्तों पर। इनके लिए विकलांगता का इस्तेमाल अक्सर सहानुभूति, ईश्वरीय न्याय या छुटकारा पाने के लिए किया जाता रहा। शायद ही कभी इसका इस्तेमाल जटिलता, अपने आप में एक स्थिति या रोजमर्रा की जिंदगी को समझने के लिए किया गया हो।
‘कोशिश’ (1972) को ही लें, जो समाज में बहरे जोड़े को दिखाने का एक दुर्लभ और शुरुआती प्रयास था। या फिर स्पर्श (1980), जिसमें अंधता और आत्म-सम्मान को खासी संवेदनशीलता के साथ दर्शाया गया। लेकिन जैसे-जैसे हम 2000 के दशक में आगे बढ़ते गए, बॉलीवुड का डिफ़ॉल्ट नजरिया भावुक और पवित्र सा हो गया।
‘ब्लैक’ (2005) में, बहरी और दृष्टि बाधित नायिका को अपने शिक्षक के लिए लगभग एक दिव्य अद्भुत प्रोजेक्ट के तौर पर दिखाया गया था। ‘माई नेम इज़ खान’ (2010) ने हमें ऑटिज़्म से पीड़ित एक केन्द्रीय चरित्र तो दिया, लेकिन उसे परखने के लिए वहां ‘मुक्तिदाता’ वाली जटिलता के साथ अमेरिकी नजरिया भी दिखा। बर्फी! (2012) न्यूरोडाइवर्जेंस (तंत्रिकाविकार) का रूमानीकरण करती और इसके सामाजिक पक्ष को पूरी तरह से नजरअंदाज करती दिखाई दी। फिल्म में अभिनय पक्ष शानदार होने के बावजूद कहानी वह न कर सकी जो उसे करना था, चरित्र बस एक चरित्र ही बनकर रह गया।
हालांकि, यह सब उतना बुरा नहीं, इसे बहुत आपराधिक नहीं कह सकते- लेकिन मजाहिया चरित्र, बचकाने रूपक, “पागल प्रतिभाएं” और हकलाने, झटके देने, देर से बोलने जैसे अंतहीन प्रयोग जिस तरह महज हंसने-हंसाने का जरिया बनाए गए वह चिंता में डालता है। यह महज लेखन की लापरवाही नहीं है। इसे जानबूझकर नुकसान पहुंचाना कहेंगे। यह बताता है कि लाखों-करोड़ों लोग उन लोगों को किस तरह देखते हैं जो अलग तरह से चलते, बोलते हैं या सोचते हैं।
अभी यह फिल्म क्यों जरूरी हैइसलिए कि सितारे ज़मीन पर ऐसे समय में आई है जो नाज़ुक भी है और संभावनाशील भी। यह समय विश्व स्तर पर, प्रामाणिक न्यूरोडायवर्जेंट प्रतिनिधित्व को लेकर धीमी लेकिन स्थिर कोशिश वाला है। ‘ए काइंड ऑफ स्पार्क’ जैसी ब्रिटिश सीरीज से लेकर ‘एवरीथिंग्स गोना बी ओके’ जैसी अमेरिकी हिट फिल्मों तक, न्यूरोडायवर्जेंट अभिनेताओं को ऐसी भूमिकाएं दी जा रही हैं, जो उनके जीवन की व्यापकता को दर्शाती हैं- न कि सिर्फ उनका निदान दिखाती हैं।
भारत में विकलांगता अधिकार आंदोलन ने गति पकड़ी है- शिक्षा तक बेहतर पहुंच, कार्यस्थल पर सुविधाओं तथा विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 के तहत कानूनी सुरक्षा की मांग को गति मिली है। लेकिन हमारा सिनेमा? यह अब भी पिछड़ा हुआ है!
इसलिए जब आप सुनते हैं कि कलाकारों में बेकर और कॉमिक कलाकार ऋषभ जैन, मलयालम फिल्म में डाउन सिंड्रोम से पीड़ित भारत के पहले मुख्य अभिनेता गोपी कृष्णन वर्मा, सॉफ्टवेयर डेवलपर और मॉडल नमन मिश्रा तथा संगीत, कविता, खेल और तकनीक में रुचि रखने वाले अनेक अन्य लोग शामिल हैं, तो उम्मीद और आश्वस्ति की एक किरण सामने दिखने लगती है।
हां, यह एक महत्वपूर्ण अवसर हो सकता है। लेकिन सिर्फ तब जब यह सब उसी पुराने पारम्परिक जाल में न उलझ कर न रह जाए।
नेक इरादों के खतरे भी हैंअगर ‘सितारे जमीन पर’ इन व्यक्तियों को ‘प्रेरणापुरुष’, ‘देवदूत’ या ‘बेसहारा आश्रितों’ के रूप में ही पेश करती है, तो इसका मतलब है कि हमने कुछ भी नहीं सीखा!
विकलांगता, विशेष रूप से न्यूरोडाइवर्जेंस को साफ-सुथरा या नाटकीय बनाने की जरूरत नहीं है। इसे वैसा ही रहने दें जैसा होता है, यानी सामान्य बनाने की जरूरत है। पात्रों के साथ घालमेल न करें। उन्हें बहस करने दें, हंगामा (विद्रोह) करने दें, खराब चुटकुले बनाने दें, प्यार में पड़ने दें, चीजों में असफल होने दें, गुस्सा होने दें, शानदार दिखने दें। दूसरे शब्दों में, उन्हें इंसान बनने दें।
क्योंकि असल समावेशन महज विकलांग लोगों को स्क्रीन पर दिखाने से नहीं आता है- यह उन्हें कहानी को अपना असल आकार देने की आजादी देने से आता है।
और यही वह जगह है जहां हमारा फिल्म उद्योग आज तक मुश्किल से ही सतह को कुरेद भी पाया है।
कार्रवाई का अवसर‘सितारे ज़मीन पर’ को अगर एक नया प्रस्थान बिंदु बनना है, अगर वह महज एक बार का प्रचार अवसर नहीं है- तो उद्योग को और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है:
समावेशी लेखन कक्षकिसी भी कहानी का शुरुआती बिंदु उसकी स्क्रिप्ट होती है। इसके लिए न्यूरोडाइवर्जेंट सह-लेखकों और संवेदनशील पाठकों का साथ लें, उन्हें काम पर रखें। जीवंत अनुभवों के जरिए कथानक को आगे आने दें।
सलाहकार, कैरिकेचर नहींहर विभाग- निर्देशन, ड्रेस डिज़ाइन, संपादन, यहां तक कि मार्केटिंग में भी न्यूरोडाइवर्जेंट सलाहकारों को शामिल करने की जरूरत है। महज इसलिए नहीं कि सबकुछ बहुत “सटीक” रहे, इसलिए भी कि यह गरिमा का मामला भी है।
क्रू का चयनप्रतिनिधित्व ऐसा हो कि जो दिखता है, उससे परे भी दिखाई दे। न्यूरोडाइवर्जेंट संपादकों, सेट डिजाइनरों, सहायकों और मार्केटिंग के लिए पाइपलाइन बनाएं। दृश्यता समग्र होनी चाहिए।
दीर्घकालिक निवेशइस फिल्म के साथ ही रुकें नहीं। यह काम आगे भी जारी रहे और इसके लिए प्रतिबद्धता जरूरी है- अब वह प्रतिभा विकास कार्यक्रमों के जरिए हो, विकलांगता संगठनों के साथ साझेदारी के जरिए, या खास शैली वाली फिल्मों की विविधतापूर्ण कास्टिंग के जरिए जिनका “विकलांगता” से कोई लेना-देना नहीं है।
मीडिया की जवाबदेहीआलोचकों, समीक्षकों और पत्रकारों को प्रेरणास्पद कथाओं को चुनौती देनी चाहिए। कठिन सवाल पूछने होंगे। सतही प्रशंसा से आगे बढ़ना होगा। आलोचना के बिना की जाने वाली कोई भी बात खोखली वाहवाही के अलावा कुछ नहीं।
और दर्शकों के लिए...आपकी भी एक भूमिका है। सामने आएं- लेकिन कुछ अलग भी दिखें। सिनेमा देखें, लेकिन जिज्ञासा से, दया से नहीं। खुद से पूछें: फिल्म शुरू होने से पहले मैंने इन किरदारों के बारे में क्या सोचा था? मुझे किस बात ने चौंकाया? किस बात ने मुझे असहज किया?
‘सितारे ज़मीन पर’ की सफलता का पैमाना सिर्फ बॉक्स ऑफिस के नंबर नहीं होंगे। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या वे बच्चे जिन्हें “मुश्किल” कहा गया है, खुद को बोझ के रूप में नहीं बल्कि एक स्टार के रूप में देखते हैं।
और क्या उनके माता-पिता, शिक्षक, नियोक्ता और पड़ोसी भी उन्हें देख पाते हैं!
चमत्कार के रूप में नहीं।
किसी प्रोजेक्ट के रूप में नहीं।
महज एक इंसान के रूप में।
(पुनीत सिंह सिंघल की रिपोर्ट)
You may also like
प्रधानमंत्री मोदी 6 जून को उद्घाटन करेंगे दुनिया के सबसे ऊंचे चिनाब ब्रिज का, देखें क्या क्या है खासियत और कितना हुआ खर्च
2025 चीन-कैलिफोर्निया आर्थिक और व्यापारिक मंच लॉस एंजिल्स में आयोजित
फिलीपींस ने की हेल्थ इमरजेंसी की घोषणा, युवाओं में बढ़े एचआईवी के 500 प्रतिशत मामले
तेज प्रताप को पार्टी और परिवार से निकालना महज नाटक: जीतन राम मांझी
चीनी विदेश मंत्रालय : चीन अपनी प्रवेश नीति को अनुकूल बनाना जारी रखेगा और वीजा-मुक्त देशों के दायरे का विस्तार करेगा