हाल ही में फिल्म कांतारा ने दर्शकों को जिस “दैव आराधना” और लोक आस्था की दुनिया से परिचित कराया, वह केवल दक्षिण भारत तक सीमित नहीं है। भारत के कोने-कोने में आज भी ऐसे लोकदेवता और ग्राम्य परंपराएं जीवित हैं, जो लोगों की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना में गहराई से समाई हुई हैं।
चाहे वह कर्नाटक के तटीय इलाकों में पूजे जाने वाले गुलिगा और पंजुरली दैव हों, या फिर उत्तर भारत में बरम बाबा, डीह बाबा, और काली माई जैसी लोक-आस्था की मूर्तियाँ—हर क्षेत्र में दैव और भक्त के संबंध की एक अनोखी और आत्मीय कथा है।
गुलिगा और पंजुरली: दक्षिण का दिव्य संतुलन
कर्नाटक के तटीय जिलों में ‘बूता कोला’ एक लोकप्रिय लोक परंपरा है, जहां गुलिगा दैव और पंजुरली जैसे देवताओं की पूजा की जाती है। इन देवताओं को न केवल शक्ति का प्रतीक माना जाता है, बल्कि न्याय के दाता और गांव के संरक्षक भी समझा जाता है। कांतारा फिल्म ने इन परंपराओं को जिस बारीकी और सम्मान के साथ पेश किया, उसने पूरे भारत को इस परंपरा की ओर आकर्षित किया।
गुलिगा और पंजुरली जैसे देवता, अक्सर वेषभूषा में पुजारी (जो देवता का अवतार माने जाते हैं) द्वारा सजीव रूप में प्रकट होते हैं, और जनता से संवाद करते हैं। यह परंपरा केवल पूजा नहीं, एक जीवंत संवाद और न्याय व्यवस्था की तरह होती है।
डीह और बरम बाबा: उत्तर भारत का लोक-विश्वास
उत्तर भारत, विशेषकर बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में डीह बाबा और बरम बाबा जैसे ग्राम देवता सदियों से पूजे जाते रहे हैं। ये देवता किसी खास जगह (जैसे गांव की सीमा या पीपल के पेड़ के नीचे) पर निवास करते हैं। उन्हें गांव की रक्षा, वर्षा, फसल और आपसी शांति के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है।
बरम बाबा को अक्सर बिना किसी भव्य मंदिर के, मिट्टी के चबूतरे या पत्थरों के ढेर पर पूजते हैं, जो दर्शाता है कि देवत्व केवल स्थापत्य में नहीं, बल्कि श्रद्धा में बसता है।
सांस्कृतिक समानता और विविधता
दिलचस्प बात यह है कि गुलिगा, पंजुरली, डीह, और बरम बाबा जैसे देवता, भले ही भौगोलिक रूप से दूर हों, लेकिन इनकी भूमिका, पूजा की पद्धति और लोगों से जुड़ाव एक जैसे हैं। ये सभी देवता स्थानीय संस्कृति के संरक्षक, न्याय के दाता, और गांव की आत्मा माने जाते हैं।
लोकदेवताओं की प्रासंगिकता आज भी बरकरार
आधुनिकता और शहरीकरण के दौर में भी, ये देवता ग्रामीण भारत की आत्मा को जीवित रखे हुए हैं। न तो ये ट्रेंड में आते हैं, न सोशल मीडिया पर छाए रहते हैं — लेकिन गांव के हर घर में इनकी पूजा, मान्यता और भय, आज भी उतना ही जीवित है जितना सदियों पहले था।
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