रूही तिवारी: जिस दिन चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित कीं, उसी दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 21 लाख महिला वोटरों के बैंक खातों में 2,100 करोड़ रुपये भेजे। यह पीएम मोदी ने पिछले सितंबर में मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना की घोषणा की थी। इसी के तहत हर महिला को नीतीश ने 10,000 रुपये की वित्तीय सहायता दी। विपक्षी दल RJD भी पीछे नहीं रहा। उसने सत्ता में आने पर माई-बहिन मान योजना लागू करने का वादा किया है। इसके तहत कमजोर और पिछड़े समुदायों की महिलाओं को हर महीने 2,500 रुपये की सहायता दी जाएगी।
अलग वोटर समूह । इन दोनों घोषणाओं का मकसद एक ही है - बिहार की महिला वोटरों को प्रतिबद्धता का यकीन दिलाना। दिलचस्प है कि बिहार जैसे जाति आधारित, पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं ऐसे समुदाय के तौर पर उभरी हैं, जिन्हें अलग मतदाता समूह के रूप में देखा जा रहा है।
नीति-निर्माताओं के लिए अहम । वे दिन गए, जब सियासी भाषणों में महिला वोटरों का जिक्र नाम भर के लिए होता था। आज सभी दलों के घोषणापत्र महिलाओं से जुड़े वादों से भरे रहते हैं। महिलाएं पॉलिसीमेकर्स के लिए सबसे अहम ग्रुप बन गई हैं। चुनाव से पहले महिलाओं को प्रभावित कर अपने पक्ष में करना फैशन नहीं, बल्कि एक जरूरत है।
तीन बड़े सवाल । इस संदर्भ में, तीन प्रमुख सवाल हैं जिन पर बात करने की जरूरत है। पहला, क्या राजनीतिक वर्ग ने यह समझ लिया है कि महिलाएं वास्तव में क्या चाहती हैं या उसने इन वोटरों को महज लाभार्थी बनाकर रख दिया है जिनकी नजरें हमेशा खैरात पर टिकी होती हैं? दूसरा, क्या महिला वोटर एक समरूप समुदाय है और क्या इन्हें एक ग्रुप के तौर पर एक ही तरह से संबोधित किया जा सकता है? तीसरा, क्या महिलाएं परिवार की सोच-समझ-धारणा से अलग, स्वतंत्र रूप में वोट का फैसला कर रही हैं?
सशक्तीकरण में मददगार । इनके जवाब आसान नहीं हैं। मिसाल के तौर पर, पहले सवाल को लिया जाए तो राजनीतिक दल चाहे जिस सोच के तहत और जिस मकसद से इन कथित कल्याणकारी योजनाओं या महिला वोट कब्जाने वाली नीतियों की घोषणा करें, आखिरकार ये कदम महिलाओं को मजबूत बनाते हैं।
साझा चुनौती है जेंडर । ऐसे ही, जेंडर महिलाओं की इकलौती पहचान नहीं है। जाति, धर्म और संस्कृति से जुड़े सवाल महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं। लेकिन पुरुष इन सवालों से ज्यादा प्रभावित होते रहे हैं। महिलाओं के साथ जेंडर का ऐसा सवाल जुड़ा है जो उन सबके लिए एक साझा चुनौती की तरह आता है। यह उन सबको आपस में जोड़ देता है।
स्टेकहोल्डर की भूमिका । ऐसे ही परिवार के प्रभाव से पूरी तरह अलग होना मुश्किल है, लेकिन जिस तरह से राजनीतिक दल सीधे महिलाओं से संवाद में उतर रहे हैं, उससे महिलाओं को अपनी अहमियत का अहसास हो रहा है, वे राजनीतिक प्रक्रिया में खुद को एक स्टेकहोल्डर की तरह देखने लगी हैं।
बढ़ी हुई सक्रियता । 2010 का बिहार चुनाव इस मायने में ऐतिहासिक था कि पहली बार महिलाओं का वोट प्रतिशत (54.4%) पुरुषों से (51.1%) कहीं ज्यादा रहा। राष्ट्रीय स्तर पर भी महिलाओं ने इस वोटिंग गैप को खत्म कर दिया, लेकिन वह 2019 में ही संभव हुआ।
आगे क्या । 2025 का विधानसभा चुनाव महिला मतदाताओं के संदर्भ में इस सवाल को समझने में मदद करेगा कि 'अब आगे क्या?' बिहार में विपक्ष इन मतदाताओं का दिल जीतने के मामले में उतना तत्पर नहीं रहा है। लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि बिहार की महिलाएं अब अपनी राजनीतिक अहमियत को लेकर अनजान नहीं रह गई हैं। इसलिए तय मानिए कि इस बार नीतीश कुमार के लिए भी उनका समर्थन हासिल करना आसान नहीं होगा।
अलग वोटर समूह । इन दोनों घोषणाओं का मकसद एक ही है - बिहार की महिला वोटरों को प्रतिबद्धता का यकीन दिलाना। दिलचस्प है कि बिहार जैसे जाति आधारित, पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं ऐसे समुदाय के तौर पर उभरी हैं, जिन्हें अलग मतदाता समूह के रूप में देखा जा रहा है।
नीति-निर्माताओं के लिए अहम । वे दिन गए, जब सियासी भाषणों में महिला वोटरों का जिक्र नाम भर के लिए होता था। आज सभी दलों के घोषणापत्र महिलाओं से जुड़े वादों से भरे रहते हैं। महिलाएं पॉलिसीमेकर्स के लिए सबसे अहम ग्रुप बन गई हैं। चुनाव से पहले महिलाओं को प्रभावित कर अपने पक्ष में करना फैशन नहीं, बल्कि एक जरूरत है।
तीन बड़े सवाल । इस संदर्भ में, तीन प्रमुख सवाल हैं जिन पर बात करने की जरूरत है। पहला, क्या राजनीतिक वर्ग ने यह समझ लिया है कि महिलाएं वास्तव में क्या चाहती हैं या उसने इन वोटरों को महज लाभार्थी बनाकर रख दिया है जिनकी नजरें हमेशा खैरात पर टिकी होती हैं? दूसरा, क्या महिला वोटर एक समरूप समुदाय है और क्या इन्हें एक ग्रुप के तौर पर एक ही तरह से संबोधित किया जा सकता है? तीसरा, क्या महिलाएं परिवार की सोच-समझ-धारणा से अलग, स्वतंत्र रूप में वोट का फैसला कर रही हैं?
सशक्तीकरण में मददगार । इनके जवाब आसान नहीं हैं। मिसाल के तौर पर, पहले सवाल को लिया जाए तो राजनीतिक दल चाहे जिस सोच के तहत और जिस मकसद से इन कथित कल्याणकारी योजनाओं या महिला वोट कब्जाने वाली नीतियों की घोषणा करें, आखिरकार ये कदम महिलाओं को मजबूत बनाते हैं।
साझा चुनौती है जेंडर । ऐसे ही, जेंडर महिलाओं की इकलौती पहचान नहीं है। जाति, धर्म और संस्कृति से जुड़े सवाल महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं। लेकिन पुरुष इन सवालों से ज्यादा प्रभावित होते रहे हैं। महिलाओं के साथ जेंडर का ऐसा सवाल जुड़ा है जो उन सबके लिए एक साझा चुनौती की तरह आता है। यह उन सबको आपस में जोड़ देता है।
स्टेकहोल्डर की भूमिका । ऐसे ही परिवार के प्रभाव से पूरी तरह अलग होना मुश्किल है, लेकिन जिस तरह से राजनीतिक दल सीधे महिलाओं से संवाद में उतर रहे हैं, उससे महिलाओं को अपनी अहमियत का अहसास हो रहा है, वे राजनीतिक प्रक्रिया में खुद को एक स्टेकहोल्डर की तरह देखने लगी हैं।
बढ़ी हुई सक्रियता । 2010 का बिहार चुनाव इस मायने में ऐतिहासिक था कि पहली बार महिलाओं का वोट प्रतिशत (54.4%) पुरुषों से (51.1%) कहीं ज्यादा रहा। राष्ट्रीय स्तर पर भी महिलाओं ने इस वोटिंग गैप को खत्म कर दिया, लेकिन वह 2019 में ही संभव हुआ।
आगे क्या । 2025 का विधानसभा चुनाव महिला मतदाताओं के संदर्भ में इस सवाल को समझने में मदद करेगा कि 'अब आगे क्या?' बिहार में विपक्ष इन मतदाताओं का दिल जीतने के मामले में उतना तत्पर नहीं रहा है। लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि बिहार की महिलाएं अब अपनी राजनीतिक अहमियत को लेकर अनजान नहीं रह गई हैं। इसलिए तय मानिए कि इस बार नीतीश कुमार के लिए भी उनका समर्थन हासिल करना आसान नहीं होगा।
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