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सीपी राधाकृष्णन की जीत से बीजेपी ने चल दिया बड़ा दांव, अब अगले साल मिलेगा बड़ा फायदा! जानें कैसे

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जुलाई में धनखड़ के अप्रत्याशित रूप से पद छोड़ने के बाद भारत के उपराष्ट्रपति के रूप में सीपी राधाकृष्णन चुने जा चुके हैं। उनका चुनाव, संसद में एनडीए की स्पष्ट बढ़त से कम और तमिलनाडु में उनकी छवि को लेकर अधिक है। राधाकृष्णन तमिलनाडु में बीजेपी की एक प्रमुख आवाज रहे हैं। एनडीए के उम्मीदवार के रूप में उनका चयन तमिलनाडु के द्रविड़ समुदाय को दुविधा में डालने वाला था। इसका तुरंत जवाब इंडी एलायंस ने एक तेलुगु उम्मीदवार, पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज बी सुदर्शन रेड्डी को खड़ा करके दिया।



बीजेपी का दांव कितना कारगर

विपक्ष को यह उम्मीद थी की राज्य में एनडीए के सहयोगियों को भी इसी तरह के धर्म संकट का सामना करना पड़ेगा। हालांकि, चुनाव परिणाम बताते हैं कि अंतिम परिणाम में क्षेत्रीय एकजुटता की कोई खास भूमिका नहीं रही। सवाल यह है कि क्या बीजेपी का यह दांव उसे उस राज्य में गंभीर राजनीतिक लाभ दिलाने के लिए पर्याप्त है, जो द्रविड़ पहचान के प्रति अपने जुनून के कारण पारंपरिक रूप से उत्तरी दलों के प्रति शत्रुतापूर्ण रहा है।



अगर केरल में अल्पसंख्यक समुदायों की बहुलता बिना सहयोगियों के बीजेपी के राजनीतिक उत्थान को लगभग असंभव बना देती है, तो तमिलनाडु में उत्तर-विरोधी, ब्राह्मण-विरोधी भावना एक अतिरिक्त गतिरोधक है। इसका क्षेत्रीय दल फायदा उठाने की उम्मीद कर सकते हैं। स्थानीय द्रविड़ दल भी उत्तर के साथ सांस्कृतिक जुड़ाव को नकारने के लिए काफी हद तक आगे बढ़ चुके हैं।



तमिलनाडु सबसे बड़ी चुनौती

मोदी के नेतृत्व में बीजेपी तमिलनाडु को सबसे बड़ी चुनौती मानती है, और इसके लिए उसने मतदाताओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। नए संसद भवन में सेंगोल की स्थापना से लेकर काशी और तमिल लोगों के बीच सभ्यतागत संबंधों का जश्न मनाने के लिए आयोजित होने वाले वार्षिक आयोजन काशी तमिल संगमम की स्थापना तक की गई। स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा गंगईकोंडा चोलपुरम में पूजा-अर्चना करने तक, जहां चोल सम्राट राजेंद्र चोल-I ने भगवान शिव का एक भव्य मंदिर बनवाया था। इससे बीजेपी ने तमिल राजनीति में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में अपनी स्वीकार्यता की बाधाओं को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।



गंगईकोंडा चोलपुरम यात्रा के दौरान किए गए अन्य वादों के अलावा, मोदी ने कहा कि राज्य में राजराजा चोल और उनके पुत्र राजेंद्र चोल की ऊंची मूर्तियां बनाई जाएंगी। चोलों (अतुलनीय मंदिर निर्माता, जिनकी स्थापत्य कला की उपलब्धियों में तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर भी शामिल है) की आध्यात्मिक विरासत का यह दावा, द्रविड़ दलों द्वारा तीन तमिल राजवंशों (पल्लव, पांड्य और चोल) पर चर्चा किए जाने के तरीके के विपरीत है।



अन्नामलाई के रूप में करिश्माई खोज

राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद पर प्रोमोट करने से पहले, बीजेपी की सबसे उल्लेखनीय चाल अन्नामलाई के रूप में एक करिश्माई तमिल नेता की खोज थी। वे लगभग अकेले ही 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी का वोट शेयर दोहरे अंकों में पहुंचाने में कामयाब रहे। लेकिन राजनीति में अल्पकालिक वास्तविकताएं अक्सर दीर्घकालिक उम्मीदों पर पानी फेर देती हैं।



राज्य प्रमुख के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, अन्नामलाई ने डीएमके और एडापड्डी पलानीस्वामी के नेतृत्व वाली एडीएमके, दोनों पर हमला करके बीजेपी का आधार बनाने की कोशिश की। उन्होंने यह काम पूर्ववर्ती एडीएमके की कुछ सहयोगी पार्टियों को एनडीए में शामिल करते हुए भी किया। इसी वजह से पलानीस्वामी लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए से बाहर हो गए।



अन्नामलाई स्वयं कोयंबटूर में डीएमके से हार गए। यह वही निर्वाचन क्षेत्र है जहां से राधाकृष्णन अतीत में लोकसभा के लिए चुने गए थे। इसे डीएमके ने अन्नामलाई को छोटा करने के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई में बदल दिया, ऐसे समय में जब उनका कद बढ़ रहा था। अब, जब विधानसभा चुनाव करीब आ रहे हैं, तो बीजेपी ने अन्नामलाई को दरकिनार करने का फैसला किया ताकि वह अन्नाद्रमुक के साथ फिर से गठबंधन कर सके। संसद में अपना समर्थन बढ़ाने और तमिलनाडु में द्रमुक को नुकसान पहुंचाने के लिए, बीजेपी ने यह सुनिश्चित करने के लिए समझौते करने का निर्णय लिया कि एमके स्टालिन की पार्टी विपक्षी वोटों के विभाजन का लाभ न उठा सके।



तमिलनाडु में नई राजनीतिक ताकत

हालांकि, अब तमिलनाडु में एक नई राजनीतिक ताकत उभरी है। एक्टर जोसेफ विजय ने अपनी राजनीतिक पार्टी, तमिलगा वेत्री कझगम (तमिल विजय पार्टी) शुरू की है। उनसे पहले, एमजी रामचंद्रन, जे जयललिता, विजयकांत और शिवाजी गणेशन भी राजनीति में हाथ आजमाने वाले अन्य अभिनेता थे। केवल पहले दो ही सफल हुए और कई बार मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की। क्या विजय सफल होंगे?



शुरुआती रिपोर्टों से पता चलता है कि वह अगले विधानसभा चुनावों पर वाकई असर डालेंगे। हालांकि हमें नहीं पता कि किसकी कीमत पर। ऐसा लगता है कि चर्च का कुछ वर्ग- तमिलनाडु की एक शक्तिशाली संस्था, जिसे DMK का भी समर्थन प्राप्त है- विजय के साथ जा सकता है।



उन्होंने DMK और बीजेपी दोनों को निशाना बनाने का फैसला किया है। इसे ईसाई वोटों के साथ-साथ मूल द्रविड़ वोटों का एक बड़ा हिस्सा हथियाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। चर्च भाजपा और संघ का कट्टर विरोधी रहा है, क्योंकि वे उसके धर्मांतरण एजेंडे का विरोध करते हैं।



बीजेपी के लिए कितनी चुनौती?

कुल मिलाकर, तमिलनाडु में बीजेपी के लिए काम आसान नहीं है, चाहे वह अन्नाद्रमुक के साथ हो या उसके बिना। हां, व्यापक रूप से एक उच्च जाति की पार्टी मानी जाने वाली, इसने अब पश्चिमी तमिलनाडु में अपना आधार बढ़ाया है। जहां अन्नाद्रमुक को गौंडर समुदाय का भी मजबूत समर्थन प्राप्त है। लेकिन जिस तरह से अन्य पार्टियां ब्राह्मण-विरोध का इस्तेमाल करके बीजेपी को हमेशा पीछे धकेलने में कामयाब रही हैं, वह अन्नाद्रमुक गठबंधन को अल्पावधि में उसकी राजनीतिक प्रासंगिकता के लिए महत्वपूर्ण बनाता है।



अपने दम पर प्रभाव डालने के लिए, बीजेपी को कम से कम 20% वोटों का एक मज़बूत आधार चाहिए। इसके बाद सहयोगी दल भी इसमें शामिल हो सकते हैं। तमिलनाडु में, कोई भी गठबंधन जो लगभग 35% वोट हासिल कर सके, उसके बहुमत हासिल करने की अच्छी संभावना है।



बीजेपी अभी उस स्तर तक पहुंचने से कोसों दूर है। आगे बढ़ने के लिए, उसे कम से कम एक या दो चुनाव अकेले (छोटे सहयोगियों के साथ) लड़ने होंगे। ऐसा तब नहीं हो सकता जब अन्नाद्रमुक उसकी वरिष्ठ सहयोगी हो, और वह यह मानने को भी तैयार नहीं है कि अगर गठबंधन जीतता है तो बीजेपी सरकार का हिस्सा होगी।



बीजेपी ने ब्रांड निर्माण की बजाय अल्पकालिक अवसरवाद को चुना है। द्रविड़ मानसिकता से उबरने के लिए उसे और अधिक एकल प्रयासों और अन्नामलाई के अलावा और अधिक मजबूत क्षेत्रीय नेताओं की आवश्यकता है।

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