नई दिल्ली: लगभग डेढ़ दशक बाद सोमवार को दिल्लीवालों ने एक बार फिर आतंकी धमाके की दहशत देखी। देश की शान माने जाने वाले लाल किले के ठीक सामने भीड़भाड़ वाली सड़क पर ट्रैफिक सिग्नल के पास रुकी एक कार में धमाका हुआ था। उसके बाद जिस तरह का खौफनाक मंजर सामने आया, उसने यह स्पष्ट कर दिया कि यह कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है।
अलग अलग जगहों पर संभाला मोर्चा
NBT के रिपोर्टरों ने भी तुरंत घटनास्थल से लेकर अस्पताल और अन्य जगहों पर मोर्चा संभाल लिया। ब्लास्ट के बाद से लेकर अब तक लगातार जानकारियां जुटाने में लगे संवाददाताओं ने ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान क्या देखा, किस तरह की चुनौतियों का सामना किया, कैसे अपनी भावनाओं पर काबू रखकर सभी जरूरी तथ्य जुटाए, सुनिए उन्हीं की जुबानी:
लाल किले से विशाल आनंद
रोज की तरह ऑफिस में खबरें फाइल करने की व्यस्तता। समय करीब शाम के सवा सात बजे थे। अचानक सूचना मिलती है कि चांदनी चौक में धमाका हुआ है। 'धमाका' शब्द सुनकर पहली मर्तबा लगा कि कोई सिलेंडर फटा होगा। पुलिस से पुष्टि की तो धमाके का इंपेक्ट पता चला। ऑफिस से सीधे स्पॉट पर पहुंचने की हड़बड़ी।
सड़कों पर मची थी अफरा तफरी
चांदनी चौक जाने वाले अधिकतर रास्ते बंद, मेट्रो का ठहराव भी रोक दिया गया था। सड़कों पर ट्रैफिक में लोगों के बीच अफरा तफरी का माहौल था। दौड़ते भागते स्पॉट की तरफ पहुंचा तो उस जगह पर कफ्यू जैसा नजारा था जहां जिस चांदनी चौक की रातें लोगों की आवाजाही से गुलजार रहती थीं।
रोड पर फैले थे शरीर के हिस्से
सड़कों पर दूर दूर तक फैले मांस के टुकड़े, गाड़ियों के पुर्जे, खून के धब्बे। बयान करने को काफी थे कि यह आतंकी धमाका था। सड़कों के सन्नाटे को चीरती हुई चारों तरफ एंबुलेंस के सायरन की आवाजें थीं। घटनास्थल पर मेरी पहली कोशिश रात में चश्मदीदों को खोजना। उनके दावों और बयानों की पुष्टि करना। मंजर जैसा दिख रहा था। उससे कई ज्यादा धमाके के वक्त खौफनाक था।
ऐसी जानकारी जुटाना पहली बार: शंकर सिंह
मेरे क्राइम रिपोर्टिंग के छोटे से करियर में यह पहला बड़ा बम ब्लास्ट था। सोमवार शाम क्राइम टीम के साथ को-ऑर्डिनेट करके अंदर की खबरें निकालने का जिम्मा मेरे पास था। गैंगवॉर, मर्डर, साइबर अपराध और स्ट्रीट क्राइम की रिपोर्टिंग का अनुभव तो काफी हद तक ले चुका था, लेकिन ब्लास्ट की 'भीतरी' जानकारी जुटाने का काम पहली बार कर रहा था।
बोलने से बच रहे थे सूत्र
यह थोड़ा मुश्किल रहा, क्योंकि देश की सुरक्षा के मद्देनजर 'सूत्र' बोलने से बच रहे थे। बहरहाल, कुछ पूर्व पुलिस अफसरों और स्पॉट पर मौजूद 'जानकारों' ने अमोनियम नाइट्रेट के इस्तेमाल, फरीदाबाद मॉड्यूल लिंक और फिदायीन अटैक के संकेत दे दिए। थोड़ी राहत की सांस ली, क्योंकि खबर पकने लगी थी।
आसपास लगे थे बैरिकेड
एक सवाल था कि कितनी मौतें हुई? देर रात 9 लोगों की मौत की पुष्टि पुलिस अफसरों ने की और कुछ लोगों की शिनाख्त भी पता चली। मंगलवार की सुबह मैं स्पॉट पर पहुंचा, तो दिगंबर जैन मंदिर से लाल किला मेट्रो स्टेशन तक बैरिकेड लगाकर रोड बंद की हुई थी। सूनी रोड पर सिर्फ ट्रैफिक सिग्नल रोजाना की तरह अपना काम बखूबी कर रहा था।
LNJP हॉस्पिटल से राहुल आनंद
बुशरा अपनी छोटी सी बेटी का हाथ पकड़ एलएनजेपी अस्पताल के एक कोने में खड़ी थी। उनके चेहरे से बेबसी और लाचारी झलक रही थी। वो मदद की उम्मीद में इधर-उधर निहार रहीं थीं। मैंने उनके पास जाकर पूछा कि क्या हुआ, तो बोलीं कि 'मेरा पति अंदर एडमिट है, एक झलक दिखाकर बाहर कर दिया, अब कुछ बता ही नहीं रहे। मुझे बहुत डर लग रहा है।' बतौर हेल्थ रिपोर्टर मैंने 2008 का सीरियल ब्लास्ट भी कवर किया था। मगर ऐसे हालात मैने पहली बार देखे थे। जो लोग पीड़ित हैं, यहां उनका भी ख्याल नहीं रखा जा रहा था।
LNJP हॉस्पिटल से सुदामा यादव
2005 और 2008 के दिल्ली सीरियल ब्लास्ट के बारे में बहुत सुना था, लेकिन ब्लास्ट की कवरेज करने का पहला अवसर सोमवार शाम को मिला। लाल किला के पास कार में धमाके की खबर आते ही मुझे तुरंत LNJP अस्पताल भेजा गया। वैसे तो ऑफिस से अस्पताल की दूरी महज डेढ़-दो किमी है, लेकिन वहां तक पहुंचने की राह बेहद कठिन रही। अपनों को ढूंढते बदहवास लोग अस्पताल के एक गेट से दूसरे गेट की ओर भाग रहे थे। अस्पताल का मेन गेट पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था। देर रात तक यही सिलसिला चलता रहा।
लाल किले से अभिषेक गौतम
शाम के 7 बजने वाले थे। ऑफिस के पास एक दुकान पर चाय की पहली चुस्की ली ही थी कि ऑफिस से फोन आया - लाल किले पर ब्लास्ट हुआ है, फौरन मौके पर निकलो। चाय का कप वहीं छोड़कर मैं तुरंत ऑफिस की तरफ दौड़ा। अभी तक के मेरे रिपोर्टिंग करियर में ब्लास्ट साइट पर जाकर कवरेज करने का यह पहला मौका था।
लोगों के चेहरों पर नजर आ रही थी दशहत
कुछ ही देर में मैं लाल किले के नजदीक था। पुलिस ने आस-पास के रास्ते बंद कर दिए थे, जिससे जाम लग गया था। सड़क पर भागते लोगों के चेहरे पर दशहत साफ नजर आ रही थी। हवा में एक अलग ही तरह की गंध आ रही थी और माहौल में धुंध सी छाई हुई थी। एंबुलेंस, फायर ब्रिगेड और पुलिस की गाड़ियां लगातार सायरन बजाते हुए निकल रही थीं।
पहले कभी नहीं देखा ऐसा मंजर
भीड़ छट चुकी थी, लेकिन सड़क पर गाड़ियों के पुर्जे, मांस के लोथड़े जहां-तहां पड़े थे। मैंने ऐसा मंजर पहले कभी नहीं देखा था। मैं करीब 4 घंटे तक मौके पर रहा। जैमर लगे होने के कारण ऑफिस तक अपडेट पहुंचाने में भी दिक्कत हो रही थी। मेरे सहयोगी लगातार किसी तरह फोन कर करके मुझसे डीटेल्स लेते रहे। ब्लास्ट कितना भयावह होता है, इसका अंदाजा मुझे अच्छी तरह से हो चुका था।
LNJP की मोर्चरी से प्राची यादव
2006 में पत्रकारिता शुरू करने के महज दो साल बाद 2008 में हुए सीरियल बम धमाके की कवरेज में मेरी सक्रिय भूमिका रही। तब एक न्यूज चैनल के लिए काम करते हुए मैं उन जगहों पर भी गई थी, जहां बम धमाके हुए थे। हादसे में मरने वालों के परिजनों और घायलों से भी मिली थी।
ठंडे बस्ते में चले जाते हैं इंतजाम
दिल्ली के प्रमुख बाजारों की सुरक्षा का जायजा भी लिया था, क्योंकि अधिकांश बम धमाके बाजारों में हुए थे। मैंने गौर किया कि ऐसे हादसों के बाद एजेंसियां चौकन्नी हो जाती है और कुछ समय के लिए सुरक्षा कड़ी कर दी जाती है, लेकिन मामला ठंडा पड़ते ही सुरक्षा इंतजाम भी ठंडे बस्ते में चले जाते हैं और कुछ समय बाद सुरक्षा में खामियों का फायदा उठाकर फिर से उसी तरह के धमाके या हादसे होते हैं।
लोगों की आंखों में दिखी लाचारी
लाल किले के सामने हुए धमाके ने फिर से वही बात याद दिला दी। इस बार भी मैंने देखा कि किस तरह आम लोग ऐसी वारदातों का दंश झेलते हैं। LNJP हॉस्पिटल की मॉर्चुरी के बाहर अपनों का शव लेने आए लोगों की आंखों में मुझे वही लाचारी और बेबसी नजर आई।
अलग अलग जगहों पर संभाला मोर्चा
NBT के रिपोर्टरों ने भी तुरंत घटनास्थल से लेकर अस्पताल और अन्य जगहों पर मोर्चा संभाल लिया। ब्लास्ट के बाद से लेकर अब तक लगातार जानकारियां जुटाने में लगे संवाददाताओं ने ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान क्या देखा, किस तरह की चुनौतियों का सामना किया, कैसे अपनी भावनाओं पर काबू रखकर सभी जरूरी तथ्य जुटाए, सुनिए उन्हीं की जुबानी:
लाल किले से विशाल आनंद
रोज की तरह ऑफिस में खबरें फाइल करने की व्यस्तता। समय करीब शाम के सवा सात बजे थे। अचानक सूचना मिलती है कि चांदनी चौक में धमाका हुआ है। 'धमाका' शब्द सुनकर पहली मर्तबा लगा कि कोई सिलेंडर फटा होगा। पुलिस से पुष्टि की तो धमाके का इंपेक्ट पता चला। ऑफिस से सीधे स्पॉट पर पहुंचने की हड़बड़ी।
सड़कों पर मची थी अफरा तफरी
चांदनी चौक जाने वाले अधिकतर रास्ते बंद, मेट्रो का ठहराव भी रोक दिया गया था। सड़कों पर ट्रैफिक में लोगों के बीच अफरा तफरी का माहौल था। दौड़ते भागते स्पॉट की तरफ पहुंचा तो उस जगह पर कफ्यू जैसा नजारा था जहां जिस चांदनी चौक की रातें लोगों की आवाजाही से गुलजार रहती थीं।
रोड पर फैले थे शरीर के हिस्से
सड़कों पर दूर दूर तक फैले मांस के टुकड़े, गाड़ियों के पुर्जे, खून के धब्बे। बयान करने को काफी थे कि यह आतंकी धमाका था। सड़कों के सन्नाटे को चीरती हुई चारों तरफ एंबुलेंस के सायरन की आवाजें थीं। घटनास्थल पर मेरी पहली कोशिश रात में चश्मदीदों को खोजना। उनके दावों और बयानों की पुष्टि करना। मंजर जैसा दिख रहा था। उससे कई ज्यादा धमाके के वक्त खौफनाक था।
ऐसी जानकारी जुटाना पहली बार: शंकर सिंह
मेरे क्राइम रिपोर्टिंग के छोटे से करियर में यह पहला बड़ा बम ब्लास्ट था। सोमवार शाम क्राइम टीम के साथ को-ऑर्डिनेट करके अंदर की खबरें निकालने का जिम्मा मेरे पास था। गैंगवॉर, मर्डर, साइबर अपराध और स्ट्रीट क्राइम की रिपोर्टिंग का अनुभव तो काफी हद तक ले चुका था, लेकिन ब्लास्ट की 'भीतरी' जानकारी जुटाने का काम पहली बार कर रहा था।
बोलने से बच रहे थे सूत्र
यह थोड़ा मुश्किल रहा, क्योंकि देश की सुरक्षा के मद्देनजर 'सूत्र' बोलने से बच रहे थे। बहरहाल, कुछ पूर्व पुलिस अफसरों और स्पॉट पर मौजूद 'जानकारों' ने अमोनियम नाइट्रेट के इस्तेमाल, फरीदाबाद मॉड्यूल लिंक और फिदायीन अटैक के संकेत दे दिए। थोड़ी राहत की सांस ली, क्योंकि खबर पकने लगी थी।
आसपास लगे थे बैरिकेड
एक सवाल था कि कितनी मौतें हुई? देर रात 9 लोगों की मौत की पुष्टि पुलिस अफसरों ने की और कुछ लोगों की शिनाख्त भी पता चली। मंगलवार की सुबह मैं स्पॉट पर पहुंचा, तो दिगंबर जैन मंदिर से लाल किला मेट्रो स्टेशन तक बैरिकेड लगाकर रोड बंद की हुई थी। सूनी रोड पर सिर्फ ट्रैफिक सिग्नल रोजाना की तरह अपना काम बखूबी कर रहा था।
LNJP हॉस्पिटल से राहुल आनंद
बुशरा अपनी छोटी सी बेटी का हाथ पकड़ एलएनजेपी अस्पताल के एक कोने में खड़ी थी। उनके चेहरे से बेबसी और लाचारी झलक रही थी। वो मदद की उम्मीद में इधर-उधर निहार रहीं थीं। मैंने उनके पास जाकर पूछा कि क्या हुआ, तो बोलीं कि 'मेरा पति अंदर एडमिट है, एक झलक दिखाकर बाहर कर दिया, अब कुछ बता ही नहीं रहे। मुझे बहुत डर लग रहा है।' बतौर हेल्थ रिपोर्टर मैंने 2008 का सीरियल ब्लास्ट भी कवर किया था। मगर ऐसे हालात मैने पहली बार देखे थे। जो लोग पीड़ित हैं, यहां उनका भी ख्याल नहीं रखा जा रहा था।
LNJP हॉस्पिटल से सुदामा यादव
2005 और 2008 के दिल्ली सीरियल ब्लास्ट के बारे में बहुत सुना था, लेकिन ब्लास्ट की कवरेज करने का पहला अवसर सोमवार शाम को मिला। लाल किला के पास कार में धमाके की खबर आते ही मुझे तुरंत LNJP अस्पताल भेजा गया। वैसे तो ऑफिस से अस्पताल की दूरी महज डेढ़-दो किमी है, लेकिन वहां तक पहुंचने की राह बेहद कठिन रही। अपनों को ढूंढते बदहवास लोग अस्पताल के एक गेट से दूसरे गेट की ओर भाग रहे थे। अस्पताल का मेन गेट पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था। देर रात तक यही सिलसिला चलता रहा।
लाल किले से अभिषेक गौतम
शाम के 7 बजने वाले थे। ऑफिस के पास एक दुकान पर चाय की पहली चुस्की ली ही थी कि ऑफिस से फोन आया - लाल किले पर ब्लास्ट हुआ है, फौरन मौके पर निकलो। चाय का कप वहीं छोड़कर मैं तुरंत ऑफिस की तरफ दौड़ा। अभी तक के मेरे रिपोर्टिंग करियर में ब्लास्ट साइट पर जाकर कवरेज करने का यह पहला मौका था।
लोगों के चेहरों पर नजर आ रही थी दशहत
कुछ ही देर में मैं लाल किले के नजदीक था। पुलिस ने आस-पास के रास्ते बंद कर दिए थे, जिससे जाम लग गया था। सड़क पर भागते लोगों के चेहरे पर दशहत साफ नजर आ रही थी। हवा में एक अलग ही तरह की गंध आ रही थी और माहौल में धुंध सी छाई हुई थी। एंबुलेंस, फायर ब्रिगेड और पुलिस की गाड़ियां लगातार सायरन बजाते हुए निकल रही थीं।
पहले कभी नहीं देखा ऐसा मंजर
भीड़ छट चुकी थी, लेकिन सड़क पर गाड़ियों के पुर्जे, मांस के लोथड़े जहां-तहां पड़े थे। मैंने ऐसा मंजर पहले कभी नहीं देखा था। मैं करीब 4 घंटे तक मौके पर रहा। जैमर लगे होने के कारण ऑफिस तक अपडेट पहुंचाने में भी दिक्कत हो रही थी। मेरे सहयोगी लगातार किसी तरह फोन कर करके मुझसे डीटेल्स लेते रहे। ब्लास्ट कितना भयावह होता है, इसका अंदाजा मुझे अच्छी तरह से हो चुका था।
LNJP की मोर्चरी से प्राची यादव
2006 में पत्रकारिता शुरू करने के महज दो साल बाद 2008 में हुए सीरियल बम धमाके की कवरेज में मेरी सक्रिय भूमिका रही। तब एक न्यूज चैनल के लिए काम करते हुए मैं उन जगहों पर भी गई थी, जहां बम धमाके हुए थे। हादसे में मरने वालों के परिजनों और घायलों से भी मिली थी।
ठंडे बस्ते में चले जाते हैं इंतजाम
दिल्ली के प्रमुख बाजारों की सुरक्षा का जायजा भी लिया था, क्योंकि अधिकांश बम धमाके बाजारों में हुए थे। मैंने गौर किया कि ऐसे हादसों के बाद एजेंसियां चौकन्नी हो जाती है और कुछ समय के लिए सुरक्षा कड़ी कर दी जाती है, लेकिन मामला ठंडा पड़ते ही सुरक्षा इंतजाम भी ठंडे बस्ते में चले जाते हैं और कुछ समय बाद सुरक्षा में खामियों का फायदा उठाकर फिर से उसी तरह के धमाके या हादसे होते हैं।
लोगों की आंखों में दिखी लाचारी
लाल किले के सामने हुए धमाके ने फिर से वही बात याद दिला दी। इस बार भी मैंने देखा कि किस तरह आम लोग ऐसी वारदातों का दंश झेलते हैं। LNJP हॉस्पिटल की मॉर्चुरी के बाहर अपनों का शव लेने आए लोगों की आंखों में मुझे वही लाचारी और बेबसी नजर आई।
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